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देवता: अग्निः ऋषि: सौभरि: काण्व: छन्द: बृहती स्वर: मध्यमः काण्ड:

प्र꣡ दैवो꣢꣯दासो अ꣣ग्नि꣢र्देव इन्द्रो न मज्मना । अनु मातरं पृथिवीं वि वावृते तस्थौ नाकस्य शर्मणि ॥१५१७॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

प्र दैवोदासो अग्निर्देव इन्द्रो न मज्मना । अनु मातरं पृथिवीं वि वावृते तस्थौ नाकस्य शर्मणि ॥१५१७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र꣢ । दै꣡वो꣢꣯दासः । दै꣡वः꣢꣯ । दा꣣सः । अग्निः꣢ । दे꣣वः꣢ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । न । म꣣ज्म꣡ना꣢ । अ꣡नु꣢꣯ । मा꣣त꣡र꣢म् । पृ꣣थिवी꣢म् । वि । वा꣣वृते । तस्थौ꣣ । ना꣡क꣢꣯स्य । श꣡र्म꣢꣯णि ॥१५१७॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1517 | (कौथोम) 7 » 1 » 11 » 3 | (रानायाणीय) 14 » 3 » 2 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तृतीय ऋचा की पूर्वार्चिक में ५१ क्रमाङ्क पर परमात्मा की महिमा के विषय में व्याख्या की गयी थी। यहाँ परमात्मा और राजा दोनों का विषय कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

(दैवोदासः) आनन्द का दाता, (देवः) प्रकाशक (अग्निः) अग्रनायक जगदीश्वर वा राजा (इन्द्रः न) सूर्य के समान (मज्मना) बल से (मातरं पृथिवीम्) माता के समान पालन करनेवाली भूमि को (अनु विवावृते) अनुकूलता से पालता है और (नाकस्य) सुख की (शर्मणि) रक्षा में (तस्थौ) उद्यत रहता है ॥३॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥३॥

भावार्थभाषाः -

जैसे जगदीश्वर प्रजाओं को योगक्षेम प्रदान करता है और भूमि का पालन करता है, वैसे ही राजा भी करे ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तृतीया ऋक् पूर्वार्चिके ५१ क्रमाङ्के परमात्मविषये व्याख्याता। अत्र परमात्मनृपत्योरुभयोर्विषय उच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(दैवोदासः) दासति ददातीति दासः। दिवः आनन्दस्य दासः दाता दिवोदासः, स एव दैवोदासः। [दासतिः ददातिकर्मा। निघं० ३।२०। दीव्यतिरत्र मोदार्थः स्वार्थिकस्तद्धितप्रत्ययः।] (देवः) प्रकाशकः (अग्निः) अग्रनायकः जगदीश्वरो नृपतिर्वा (इन्द्रः न) सूर्यः इव (मज्मना) बलेन (मातरं पृथिवीम्) मातृवत् पालयित्रीं भूमिम् (अनु वि वावृते) अनुकूलतया पालयति, किञ्च (नाकस्य) सुखस्य (शर्मणि) रक्षणे (तस्थौ) तिष्ठति ॥३॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥

भावार्थभाषाः -

यथा जगदीश्वरः प्रजाभ्यो योगक्षेमं प्रयच्छति भूमिं च पालयति, तथैव नृपतिरपि कुर्यात् ॥३॥